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Wednesday, June 24, 2020

आपने पूछा होगा जो सवाल अच्छा होगा,
मजूमी ने नहीं बताया तो जबाब सच्चा होगा,
जो कर दे इश्क अपनी नुमाया सरे फेसबूक,
आशिकी में वो कोई बच्चा होगा.....
यकी हो गर अपनी मुहब्बत पर,
तो ये ही नहीं हर साल अच्छा होगा

सिर्फ़ निभाया गया भर
"तकल्लुफ़" का सफ़र
"शुक्रिया" "आमीन" जैसे हर्फ़
और कुछ भी तो नही है मेरे पास
तुम्हारा दिया-
"दिल" भी नही.
ये रंजो गम की कहानी
हो नही सकती तुम्हारी निशानी,
उदास शामों और तन्हा रातों की तरह
हक है मेरा इन पर
पास थी तुम बहुत पास
कि तुम्हारी सांसों की तपिस
मेरे माथे का पसीना उड़ा ले गयी
तुम रही पूनम मगर अमावस की तरह खोते गये हम
अचानक मिले जब कभी 
दोनो तरफ़ हाँ दोनो तरफ़ 
बह चली थीं आँधियां जज्बात की
माहिर थी मगर तुम इस तरह के हालात की
गुजर गयी यूं करीब से
भींच कर जज्बात ओंठों की तरह दांतों तले
गोया शहर हो अजनबी
और कोई चेहरा पहचाना नहीं
जबकि लबों की शिकन में कहीं
मेरी हमनफ़स हम रह गये थे वहीं
मेरी आरजू है ख्वाइश है यही
चाहे, न चाहे आना कभी
तकल्लुफ़ ही सही...
आमीन
- सुशील गैरोला ©2013 

Tuesday, December 20, 2016

मैं जंग में हूँ।
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जंग है खुद से
और जंग है
अपने किरदार की
खोखली नुमाइश से
जंग अपनी कशमकश से
खुद में खुद को
तलाशने की आजमाइश से
जंग है मुखौटों में छुपे
अपनों को पा लेने की ख्वाइश से
जंग भीतर है जंग बाहर
जंग शांति के चाह की
हर एक गुंजाइश से
वक़्त दो मुझे कुछ
अभी मैं जंग में हूँ।
------------------------------/सुशील गैरोला© /2017/

Thursday, January 29, 2015

फिर से ......

धीरे धीरे
पिघल रहा है
यादों की सतहों से चिपका
बर्फ़ीला एकाकीपन
सुलगा गया फिर एहसास कोई
...............खामोशी से ।
बहने लगा हवाओं में
फिर से रंगत भरी फिज़ाओं मे
चिराग लिए आया है कोई
दीप जलाने
मेरी सुनी अंधियारी कुटिया का ।
धूल पौंछ कर देखी मैंने
चित्र कोश की सब तस्वीरें
वैसे ही अब भी हो
जैसे हंस बोल रहे थे
...................वर्षों पहले।
ना मैं बदला
ना ही तुम  
बदल गई तारीखें लेकिन
हाँ कुछ पल बदले
एकाकी के गुमसुम
अब बदलेंगे मिलकर कल
.प्रीतम..................साझे पल।
 -सुशील गैरोला©2015


Thursday, January 8, 2015

"मुझे याद है"

मुझे याद है
वो मिट्टी के ढेरों से गाँव
गांवो के मटियाले चेहरे मासूम
पीपल की ठंडी छाँव
मुझे याद है
माँ के तन से लिपटी
गीली मिट्टी की सौंधी खुशबू
मेलों खेलों की धूम मुझे याद है।
वो
शैशव की सैतानी
ननिहाल की बूढ़ी प्यारी नानी
नन्हें हाथों को थामे
पगडंडी पर टहलाते नाना
गर्म तवे सा हुक्के का साज
वो गुड़-गुड़ की मीठी आवाज
मुंह से नाना जी का धुआँ उड़ना
मुझे याद है।

मुझे याद है
वो तालाब पुराना
डुबकियाँ लगाना
बापू के संग खेतों मे जाना
वो खाना लंबी रातों का
वो डर दादी के किस्से बातों का
हलचीरों पर नन्हें कदम टिकaना
मुझे याद है।

मुझे याद है
रंभा की रंभाती बछिया
घुर्राते बैल मवाली
हरियाले जंगल लहराती हरियाली
और बुआ की छुन-छुन हंसिया
मुझे याद है।

वो
स्कूल की घंटी का बजना टन-टन
छुट्टी होने पर हर्षया चंचल मन
वो बस्ता-पाटी, बिछुड़े सहपाटी
लुका छिपी और घिस्सापाटी
पीयूल पर फैसला अल्हड़ बचपन
मुझे याद है।

( हलचीर: खेतों मे हल लगाने के पश्चात बनी उभरी मिट्टी की लकीरें
  पीयूल : चीड़ के सूखे पत्तों का ढेर)
 -सुशील गैरोला©2015

Wednesday, December 31, 2014

बीत गया एक वर्ष और
    फिर दीवा स्वप्न मे सोते,
        नवीन वर्ष की आस लगाए
                  अपने भाग्य को रोते। 

गिन गिन कर सब दुख अपने,
        जोड़ रहे टुकड़े टुकड़े सपने। 

                     नवीन वर्ष के तिथि बारों मे,
                                     फिर से इन्हे सँजोते।। 


प्रेम का मायाजाल पड़ा था,
       जमाना बन दीवार खड़ा था।
                  पत्थर से सर टकराते सोचा,
                                "तुम काश हमारे होते"।
गरम गैस के गुब्बारों सा,
      हंसी खुशी के फब्बारों सा।
                  भूल गये दुख के शूलों को,
                               जो निश दिन हमे चुभोते।।
पर बैभव देख सकी ना आँखें,
       लूटा सबने और भर ली सांके।
                   पाते हम भी धन आपार,
                         पर अपनी मानवता को खोते॥
शांति मंत्र का जाप भूलाकर,
             दुखियारों पर कहर ढहा कर।
                     बन बैठे हम तानाशाह,
                            खेत-खलियानों मे बंदूकें बोते ।।  

इस नवीन गीत को मिलकर गायें,
               आओ एक संकल्प उठाएँ।
                        बीत जाये न ये वर्ष भी,
                                   स्वप्नों की माला को पिरोते।।
बीत गया एक वर्ष और,
             फिर दिवास्वप्न मे सोते।
                       नवीन वर्ष की आस लगाए,
                                       अपने भाग्य को रोते।।


नूतन वर्ष   2015 की हार्दिक शुभकामनाएँ।
 -सुशील गैरोला©2014

Saturday, October 25, 2014

वो आ रहे हैं

वो आ रहे हैंजी हाँ उन्हे खबर है की हमारी दुखती नस कहाँ हैइसलिए इस बार वो हमारे दारुणहर्ता बन दुखों को दूर करने के कई सब्जबाग लेकर आ रहे हैं।होशियार रहें..... वो नकाब ओढ़े
खुद को हम सा जताएँगे 
हमारे दर्द में अपनी छटपटाहट दिखाएंगे दुर्गम के गम दूर करने के रंगीन वादों के साथफिर हमें लूट लेने के इरादों के साथ हमारे जख्मों पर फेरने मरहमी हाथ
.....
वो आ रहे हैं।मुझे सुनाई दे रही है शकुनि षडयंत्रों की सुगबुगाहटअनगिनत शजिशों की आहटहम जैसे दिखें इसलिए हमारे हालात से लड़े से हमारी मुसीबतों से भिड़े से और हमारे हकों के लिए खड़े से वो हमारे दर्द के गीत गा रहे हैं.
.................. वो आ रहे हैं। 
-सुशील गैरोला©2014