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Wednesday, June 24, 2020

सिर्फ़ निभाया गया भर
"तकल्लुफ़" का सफ़र
"शुक्रिया" "आमीन" जैसे हर्फ़
और कुछ भी तो नही है मेरे पास
तुम्हारा दिया-
"दिल" भी नही.
ये रंजो गम की कहानी
हो नही सकती तुम्हारी निशानी,
उदास शामों और तन्हा रातों की तरह
हक है मेरा इन पर
पास थी तुम बहुत पास
कि तुम्हारी सांसों की तपिस
मेरे माथे का पसीना उड़ा ले गयी
तुम रही पूनम मगर अमावस की तरह खोते गये हम
अचानक मिले जब कभी 
दोनो तरफ़ हाँ दोनो तरफ़ 
बह चली थीं आँधियां जज्बात की
माहिर थी मगर तुम इस तरह के हालात की
गुजर गयी यूं करीब से
भींच कर जज्बात ओंठों की तरह दांतों तले
गोया शहर हो अजनबी
और कोई चेहरा पहचाना नहीं
जबकि लबों की शिकन में कहीं
मेरी हमनफ़स हम रह गये थे वहीं
मेरी आरजू है ख्वाइश है यही
चाहे, न चाहे आना कभी
तकल्लुफ़ ही सही...
आमीन
- सुशील गैरोला ©2013 

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