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"विरहगीतिका का मुखपृष्ठ" |
गीत विरह के दे गए
पा गए पतझड़ सदा के लिए हम
और तुम
मधुमास मेरा ले गए
तुम......गए जबसे ।
रोम-रोम मेरे
सिहर उठते हैं अभी भी
तुम्हारे स्पर्श के एहसास से
आकार बचालो हमे प्रिय
विरह की इस वेदना के पाश से
दया कर ए निर्मोही
बावला होकर कहीं मर ही न जाऊं
पूछ लो सबसे
तुम......गए जबसे ।
हृदय मरुस्थल भले है दीखता
सतत सिंचन अश्रु मेरे कर रहे हैं
जन्मते हैं नित नयें
बीजांकुर तुम्हारे प्रेम के
लेकिन विरह की तपिश मे मर रहे हैं
चातक तुम्हारा चाहता बस
स्वाति की एक बूंद
आकार तो गिरे नभ से
तुम.......गए जबसे ।
नहीं हैं स्वप्न सतरंगी
न अब पहले सी बातें हैं
जेठ सी दुपहरी है
और पूस सी रातें हैं
धीमें धीमें इस विरह के संताप मे
जल रहे हैं अंगीठी सी आग में कबसे
तुम........गए जबसे।
(विराह्गीतिका में प्रकाशित। )
- सुशील गैरोला
©2013