Total Pageviews

Thursday, June 6, 2013

नारी होने का दंश.....

नारी होने का दंश
-----------------
(1)
बस की सीट में
बैठे अक्सर जब
तुम्हारा कंधा अतिक्रमित करने लगे
मेरी सीट की छोर
और देने लगे
मेरे कंधों पर.....वासनामय ज़ोर
सफर में अनवरत
तुम्हारी कोहनी तलासती रहे
मेरे देह का अनछुआ संसार
तो सीट के एक कोने मे दुबककर
मैं झेलती हूँ नारी होने का दंश।
(2)
दिवस के चौथे पहर जब
बजती है दरवाजे की घंटी
शरीर की भूख और थकान लेकर
लौटते हो तुम...
तो मशीन की तरह सक्रिय
हो जाता है मेरा शरीर
तुम्हारे पेट और शरीर की भूख मिटाने को
तृप्त हो जाने के बाद तुम्हारे
मैं समेटती हूँ अपना संसार
उसी छ: बाई छ: बिस्तर की एक कोने पर
सजल आँखों मे दर्द अपना छुपाए
मैं झेलती हूँ नारी होने का दंश।
- सुशील गैरोला 
©2013 

No comments:

Post a Comment